मैं जब अपने बचपन की यादों में जाती हूँ तो पहली याद में खुद को रेलवे कॉलोनी के घर में खेलते हुए देखती हूँ. काफ़ी पुराना ज़माना था लेकिन रेलवे कॉलोनी के घर अच्छे, हवादार और साफ़ सुथरे बने हुए होते थे. घर के अंदर किचन, वाशरूम यानि कि हर ज़रूरत की जगह पर पानी के नल होते थे. सुख का जीवन था. लेकिन हम कभी-कभी छुट्टियों में जब अपने एक चाचा के घर जाते तो मुझे बड़ी दिक़्क़त हो जाती थी. सुबह सुबह हल्ला मचा रहता था कि- “सब लोग जल्दी जल्दी टॉइलेट से होकर आ जाओ वर्ना “वो” कमाने आ जाएगी.”
फिर 8-9 बजे तक एक औरत जिसे सब ‘मेहतरानी’ कहते थे, एक बड़ी सी टोकरी, झाड़ू और पंजा (लोहे का डस्ट पैन) लेकर पीछे के रास्ते से आकर सीधे टॉइलेट की तरफ़ जाती थी और सफ़ाई धुलाई करके टोकरी को बोरे से ढके हुए निकल जाती थी. जितनी देर वो घर में रहती थी उतनी देर घर में एक अजीब सा टेन्शन पसरा रहता था. उसके जाने के बाद फिर से एक बार धुलाई होती थी और फिर हालात सामान्य होते थे.
कुल मिला कर मेरे बाल मन में यह बात बैठ गयी थी कि ‘कमाना’ बहुत गंदी बात होती है. फिर कुछ दिनों बाद मुझे पता चला कि उन्ही चाचा के बेटे अल्मोड़ा जाने वाले हैं. मम्मी- पापा ने बड़े गर्व से बताया कि उनकी बड़ी अच्छी जॉब लग गयी है. कमाने के लिए घर से इतनी दूर जा रहे हैं.
मैं तो जैसे सन्न हो गयी. ख़यालों में उन भैया को हाथ में झाड़ू, पंजा और बड़ी सी टोकरी उठाये देखा तो मुझे झुरझुरी आ गयी. मैं ने कहा कि- “भैया को इतनी दूर जाने की क्या ज़रूरत है. उनके घर में तो मेहतरानी कमाने आती है. उसको मना कर के वो अपने ही घर में कमा लें.”
फिर क्या था. घर में हँसी के ज़लज़ले आ गए. चाचा जी के यहाँ चिट्ठी भेजी गयी. घर में जो भी आए उसे मेरी यही बात बता बता कर लोग ख़ूब हँसते थे. मेरे सुविचारों का ख़ूब ढिंढोरा पीटा गया. बहुत दिनों तक मैं शर्मिंदगी के समुंदर में डूबती उतराती रही. सबसे बड़ी बात यह कि मुझे पता ही नहीं था कि मैं ने किया क्या है? बाद में जब मैं बड़ी हुई, पढ़ने लिखने लगी तो इस वाले ‘कमाने’ और उस वाले ‘कमाने’ का फ़र्क़ समझ में आया तो अपनी बात याद करके मुझ पर जैसे घड़ों पानी पड़ जाता था. जिन पाठकों को उस ज़माने की बहुत सी बातों की जानकारी नहीं है उन्हें बता दूँ कि पहले घरों में आजकल जैसे फ़्लश सिस्टम वाले टॉइलेट नहीं होते थे. बल्कि एक गड्ढा सा रहता था, जिसमें पीछे की तरफ से सफाई के लिए एक छोटा सा टिन का दरवाज़ा नुमा ढक्कन लगा होता था. सुबह से घर के सारे सदस्यों की गंदगी उस गड्ढे में भरती जाती थी. फिर मेहतर या मेहतरानी आकर उस गंदगी को टोकरी में उठा कर ले जाते थे और म्यूनिसिपैलिटी द्वारा निर्धारित जगह पर ले जाकर फेंकते थे. इस जगह को ‘बाउंड प्लेस’ या प्रचलित भाषा में ‘बमपुलिस’ कहा जाता था. इसी प्रक्रिया को “कमाना” कहते थे.
कमाने का दूसरा अर्थ तो दुनिया जानती है, मैं क्या बताऊँ. इसी सिलसिले में बहुत पहले पढ़ी हुई एक बात याद आयी. एक शायर ने दूसरे शायर को एक मिसरा देते हुए उसे पूरा करने का चैलेंज दिया. मिसरा कुछ यूँ था-
“मेहतरानी से दिल लगाते हैं…”
दूसरे शायर ने मिसरे को कुछ इस तरह पूरा किया-
“मेहतरानी से दिल लगाते हैं,
वो कमाती है आप खाते हैं”
अब यहाँ पर ‘कमाने’ का कौन आ अर्थ लगाना है, यह पाठकों की सोच पर निर्भर करता है…