पिछले रविवार 29th अक्तूबर को हम “भारतरत्न श्री अटल बिहारी वाजपेयी इकाना क्रिकेट स्टेडियम (इकाना आंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम) लखनऊ, उत्तर प्रदेश में भारत और इंग्लैंड के बीच वर्ल्ड कप के लिये होने वाला मैच देखने गये हुए थे. स्टेडियम में बैठ कर मैच देखने का मेरा यह पहला अवसर था. यह तो पता था कि वहाँ पर हम अपने साथ पानी या कोई खाने की चीज़ नहीं ले जा सकते हैं और अगर पानी भी पीना हो तो ख़रीदना ही पड़ेगा. इसीलिए हम घर से खूब पराठे सब्ज़ी वग़ैरह अच्छी तरह से खाकर गये थे. लेकिन साउथ प्रेसिडेंशियल गैलरी के हमारे पास में कम्प्लीमेंटरी भोजन भी शामिल है, ये हमें वहीं जाकर पता चला.
ख़ैर, टॉस और फर्स्ट इनिंग्स शुरू होने के बीच के टाइम में जब हम पानी पीने नीचे गये तो देखा कि वहाँ पर ब्रेकफास्ट लगा हुआ था. हालाँकि दिन के डेढ़ बज चुके थे लेकिन उनको शुरुआत से सारा मेनू फॉलो करना ही था सो टाइम का कोई मतलब नहीं था. टेबल पर कटलेट, बटाटा बड़ा, पोटैटो वेजेस और पोटैटो साबूदाना बॉल्स खट्टी और मीठी चटनी के साथ सजे हुए थे. पराठे तो हमने दस बजे खाये थे. पेट में थोड़ी जगह हो चुकी थी सो थोड़ा थोड़ा सब कुछ चख कर, पानी पी कर हम जल्दी से आ गए ताकि राष्ट्र गान में शामिल हो सकें.
ड्रिंक्स के पहले ब्रेक में मैं फिर पानी पीने नीचे अकेली ही आयी तो अप्रत्याशित रूप से टेबल्स पर पूरा मेन्यू बदल चुका था. अब वहाँ पर छोले – कुल्चे, ख़स्ता कचौरियाँ और मैकरोनी परोसा जा चुका था. और साथ ही साथ लोगों की भीड़ में भी पहली बार की अपेक्षा 4–5 गुना बढ़ोतरी हो चुकी थी. मैं ठहरी एक वास्तविक भारतीय माँ. मैं ने बेटे को फ़ोन किया कि नीचे आ जाओ. फ़लाँ फ़लाँ आइटम है, थोड़ा सा खा लो. बेटा बोला इंडिया की हालत टाइट है लेकिन आपके नीचे जाते ही चौके छक्के लगने शुरू हो गए हैं. मैं तो हिलूँगा नहीं, आप भी थोड़ी देर उधर ही रहो. हालात सुधर रहे हैं. हाँ पानी ला सकें तो ला दीजिए.
लेकिन उन्होंने पानी नहीं ले जाने दिया. मैं ने फिर फ़ोन किया तब तक मैच में कोई ब्रेक हो गया था. बेटा नीचे आ गया. इतनी देर में टेबल पर मंचूरियन, नूडल्स, आलू- मटर और फ़्राइड राइस भी आ चुके थे. साथ में चाशनी में डूबे हुए गरमा गरम लाल मोहन भी.. चार बजे के आस पास का टाइम था. मैं ने बेटे से कहा- “ये तो हद्द हो रही है. ये लोग इतना खिला रहे हैं लग रहा है इनकी बहन की शादी है.” भीड़ अब इतनी हो चुकी थी कि लोग एक दूसरे पर गिरे पड़ रहे थे.
“मुफ़्त का चंदन, घिस मेरे नंदन” कहावत बिलकुल अपने असली रूप में आँखों के सामने थी. लेकिन हमारे पेट में बिलकुल जगह नहीं थी. फिर भी मैं ने बड़ी मुश्किल से भागते हुए बेटे को पकड़ा- “चल, लाल मोहन तो खा ले.” सच कहूँ मैं एक सोच कर गयी थी लेकिन फिर प्लेट में दो-दो निकाल लायी. बेटे ने मुझे घूरा लेकिन चुप चाप खा लिया. अभी वहाँ से कुछ लोग पानी की छोटी बॉटल्स छुपा कर ऊपर लेकर जा रहे थे. मैं भी दुपट्टे में लपेट कर एक छोटी बॉटल ले आयी. ऊपर आकर जो देखा तो भौंचक्की रह गयी. कई लोग छोले कुलचे की प्लेटें लिए अपनी कुर्सियों पर बैठे मज़े से खाते हुए मैच देख रहे थे. मुझे लगा मैं तो सिर्फ़ एक बॉटल छुपा कर लाने में अपने को घोर पातकी समझ रही थी. यहाँ तो मुझसे बड़े बड़े नरक के कीड़े मौजूद हैं.
साढ़े पाँच, छः बजे के आस पास मेरी चाय की तलब जगने लगी. खेल जम चुका था. रोहित शर्मा और के एल राहुल की साझेदारी ने मैच को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया था. ऐसे समय में बेटा तो हिलने तक को तैयार नहीं था. मैं अकेली ही नीचे आयी. क्या दृश्य था. भंडारे और लंगर में भी आपने ऐसी मारा मारी नहीं देखी होगी. हाथों में काग़ज़ की प्लेटें लिए लोग लंबी लंबी लाइन लगाए टेबल तक पहुँचने की जद्दो जहद में थे. शरणार्थी कैम्प का सा दृश्य उपस्थित हो रहा था. लोग लाइन तोड़ने की कोशिश भी कर रहे थे कि कहीं खाना ख़त्म न हो जाये. पर चाय तो कहीं नहीं थी. मैं ने भी बेशर्म होकर एक यूनिफार्म धारी से पूछ ही लिया कि- “भैया, इतने आइटम सजा रखे हैं. चाय कॉफ़ी कहाँ रह गई?”
पता चला कि आयोजकों की एक छोटी सी भूल के कारण आज मेन्यू में चाय कॉफ़ी शामिल ही नहीं हुआ है. मेरा तो सुनते ही एंटीसिपेटरी सर दर्द चालू हो गया. लेकिन शायद मेरे सिवा कोई और चाय नशेड़ी वहाँ था ही नहीं. सब को बस एक ही धुन थी-
नान की अगली खेप कब आयेगी?
ग्रेवी की सब्ज़ी अभी तो दो थी एक कहाँ गयी?
मिक्स वेज में से पनीर छाँट कर मत निकाल लो भाई (लाइन में अपने से आगे वाले को)
तुम आगे जाकर दूसरी प्लेट में 4–5 लाल मोहन ले लो( अपने बच्चे से)
ऐसा समाँ देख कर मेरे मन में बार बार यह ख़याल आ तो रहा था कि घर पहुँचते पहुँचते 12 बज जाएँगे. कुछ बनाना तो पड़ेगा ही. तो मैं भी कस कर खा ही लूँ क्या? लेकिन पेट न जाने क्या खा कर इतना फ़ुल था कि उद्धव जी होते तो कहते कि- “ऊधौ पेट न भये दस बीस”.
वो तो भला हो इंग्लैंड का कि 15 ओवर पहले ही टीम ऑल आउट हो गई. हम फटाफट बाहर निकलने लगे. कैब भी बुक करनी थी. लेकिन भाई साहब, अभी भी हाथ में काग़ज़ की प्लेटें लिए लोग क़ैदियों जैसी लाइन लगाए खाने की मेज़ फ़तह करने में लगे हुए थे. आज ईमानदारी की क़सम उठायी है तो मैं आपको बताऊँ मेरे क़दम भी एक बार ठिठके. घर जाकर खाना बनाना पड़ेगा. लेकिन बेटा हाथ पकड़ कर आगे बढ़ता चला गया.
मुझसे एक बहुत बड़ी ग़लती हो गई वहाँ. मोबाइल तो था मेरे पास लेकिन मैं यह सुंदर दृश्य देख कर इतनी अभिभूत हो गई कि मुझे इस सुंदर दृश्य का फ़ोटो लेना या वीडियो बनाना याद ही नहीं आया. अपनी फ़ोटो ली है, वही दिखाती हूँ.
सरिता सिन्हा इन ब्लू 🙂💙