ज़िन्दगी और मौत के बीच सिर्फ दुआओं का फासला होता है….
यह हमें पता चला 14th अक्टूबर 2014 को जब हम उस दिन घर से निकले थे. होनी साथ साथ चल रही थी और सर पर सभी अपनों की दुआओं का साया भी था…
हुदहुद का तूफान दक्षिण के समुंदरों के किनारों पर तबाही मचा कर जा चुका था लेकिन उसका असर हमारी तरफ भी था सो सुबह से ही हवाएँ अपनी ही रौ में चल रही थीं साथ साथ हलकी बूंदा बांदी भी हो रही थी. कुल मिला कर मौसम खुशगवार था. कहीं से भी किसी खतरे जैसी कोई आशंका न थी. जाना ज़रूरी था तो उसी हलकी बूंदा बांदी का लुत्फ़ लेते हुए हम घर से निकल लिए. चार ही घंटे तो लगते और हम लखनऊ पहुँच जाते.
लेकिन जैसे जैसे हम आगे बढ़ते गए , बारिश का ज़ोर तेज़ होता गया और हवाओं की रफ़्तार भी. खैर घर से निकल तो चुके ही थे तो पीछे मुड़ने के बजाय आगे बढ़ना ही उचित लगा.
लेकिन हमें पता नहीं था कि हमारे घर से निकलने के साथ ही से होनी में और दोस्तों की दुआओं में जंग जारी है.
अभी हम घर से लखनऊ के आधे रास्ते तक ही पहुँचे थे कि होनी के नुकीले पंजों ने हमारे सर से दुआओं की चादर खींचने की एक ज़बरदस्त कोशिश की. हम बातों में मशगूल थे , गाड़ी के स्टीरियो पर एक प्यारी सी धुन बज रही थी कि अचानक कड़कड़कड़कड़ की तेज़ आवाज़ आई और उसी के साथ गाड़ी ने बेतहाशा लहराते हुए दाहिनी तरफ भागना शुरू कर दिया. एक पल को तो कुछ समझ में ही नहीं आया कि ये हुआ क्या, फिर तुरंत ही अंदाज़ हो गया कि शायद गाड़ी की कपलिंग टूट गयी है जिसके कारण स्टीयरिंग फ्री हो गया है . ड्राइवर बुरी तरह बायीं तरफ स्टीयरिंग घुमाए जा रहा था लेकिन गाड़ी सनसनाते हुए लगभग नब्बे या सौ की स्पीड से पागलों की तरह दाहिनी ओर भागी जा रही थी. गाड़ी में आगे की तरफ़ ड्राइवर के बगल की सीट पर मेरे पति और पिछली सीट पर मैं और मेरी सास थे. किसी को कुछ समझ में नहीं आ रहा था अब क्या होने वाला है. इतनी देर में गाड़ी अपनी तूफ़ानी स्पीड में सड़क से उतर कर कच्ची मिटटी पर आ चुकी थी और झाड़ियों और सड़क किनारे के पेड़ों से गले मिलती हुई लगभग आधे किलोमीटर का रन ले कर आखिरकार एक पेड़ से टकरायी और भयानक आवाज़ करते हुए बारिश से गीली हुई मिटटी में अपने अगले पहिये टेक कर एक भयानक झटके के साथ नतमस्तक हो गयी…
मुझे इस 8- 10 मिनट में एक एक करके सारी देखी हुई फ़िल्मों के एक्सीडेंट्स के सीन याद आते रहे. इतना तो मैं समझ ही गयी थी कि गाड़ी अब कहीं न कहीं टकरा कर ही रुकेगी और फ़िल्मों की तरह ही मेरा सर आगे टकराएगा और फिर सारी कहानी ख़त्म. सो मैं ने अगली सीट का बैक दोनों हाथों से खूब कस कर जकड़ लिया, यह सोच कर कि चाहे जो हो जाए सर तो मैं लड़ने नहीं दूँगी. नतीजा यह हुआ कि गाड़ी जब रुकी तो ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरे कंधों पर कोई भारी सा लकड़ी का लट्ठा दे मारा है.
मेरे ऊपर फ़िल्मों द्वारा अर्जित जानकारियों का इतना असर था कि मैं गाड़ी रुकते ही चिल्लाने लगी ..” दरवाज़ा खोलो, दरवाज़ा खोलो”. मुझे लग रहा था कि अभी इस भयानक झटके के कारण अगर गाड़ी के दरवाज़े लाक हो गए और कहीं गाड़ी में भक्क से आग लग गयी तो बस खेल ख़त्म…मैं जिस तरफ़ बैठी थी, वो हिस्सा ऊँचा हो गया था, सो मेरी तरफ़ का दरवाज़ा खुला तो लेकिन फिर अपने आप गिर कर बंद हो जा रहा था. मैं ने और लोगों को देखना चाहा तो मेरे पति के सर पर महीन कुटे हुए काँच का चूरा फैला था जिसके बीच में से थोड़ी थोड़ी ख़ून की बूँदे भी झलक रही थीं. और मेरे काटो तो ख़ून नहीं. जहाँ हमारी गाड़ी रुकी थी वहाँ से सिर्फ़ दो हाथ दूर ख़ूब बड़ा सा तालाब था. अगर रास्ते में वो देवदूत पेड़ न आया होता तो शायद हम चार लोग गाड़ी सहित पानी के नीचे होते..
खैर गाड़ी का दरवाज़ा तो खुल गया. ड्राइवर लड़खड़ाता हुआ बाहर निकला और धड़ाम से ज़मीन पर बैठ गया. अपने दोनों घुटने बुरी तरह मल मल कर वह कह रहा था – “लगता है टूट गया”. पर घुटना तो टूटा मेरी सास का जो गाड़ी के धक्के के साथ ही पिछली सीट से फिसल कर नीचे गिर पड़ीं. उनका एक पैर ड्राइवर की सीट के नीचे फंसा हुआ था और दूसरा घुटने से मुड़ा हुआ वहीं ज़रा सी जगह में अटका हुआ था. किसी तरह उनको सहारा देकर हमने सीट पर बैठाया. उनका बाँया घुटना ऐसा लग रहा था जैसे पूरी पूरी डबलरोटी रखी हो. इतना तो समझ में तुरंत ही आ गया कि पैर गया इनका..
बारिश और तूफ़ान की वजह से सड़क पर ट्रैफ़िक भी नहीं था. हमें इस झटके से उबरने में पाँचेक मिनट लगे. दिमाग़ दौड़ना तो थोड़ी देर बाद शुरू हुआ कि अब हम यहाँ से निकलें कैसे. ऊपर सड़क के आस पास आबादी तो थी लेकिन तूफ़ान के शोर में किसी को क्या पता कि उनके घर के बाहर सड़क पर क्या काण्ड हो गया है. मेरे पति डिग्री कालेज में प्रोफ़ेसर हैं. उनका कालेज कोई 30–35 km पीछे जा चुका था. उन्होंने अपने साथ के लोगों को फ़ोन किया. उधर तो बिल्कुल तहलका मच गया. कई लोग अपनी अपनी गड़ियाँ लेकर हमारी तरफ़ चल पड़े. इस बीच हम सब बेचारों की तरह एक दूसरे का हाल पूछते रहे और यह यक़ीन दिलाते रहे कि सब लोग ठीक हैं. हालाँकि ठीक नहीं थे. सास जी का घुटना डबलरोटी से बढ़कर ट्रिपलरोटी और भी ना जाने कितनी और पर्तों की रोटी होता चला जा रहा था. पतिदेव सीधे खड़े नहीं हो पा रहे थे और मेरे कंधे….
मेरे कंधों में इतना दर्द था कि पूरी पूरी साँस भी नहीं ली जा रही थी. लग रहा था कि शायद पसलियाँ टूट गयी हैं. गड़ियों का क़ाफ़िला हम तक पहुँच चुका था. हम सड़क से बमुश्किल 10 फ़ीट नीचे थे लेकिन ऊपर सड़क तक आने में हमें सदियाँ लग गयीं. किसी तरह गाड़ियों में लद फ़ंद कर हम उल्टे बाँस बरेली को पहुँच गए.
हम सीधे अस्पताल ही ले जाए गए. बारिश इतनी थी कि लग रहा था बादल आज नहीं बरसे तो फ़िर कभी बरसेंगे ही नहीं. एक्स रे हुआ, और भी चेक अप्स हुए. मेरी सास की रिपोर्ट तो हमें पता ही थी. घुटने में फ़्रैक्चर, जिसका प्लास्टर नहीं बल्कि आपरेशन करना पड़ा. पतिदेव को हिप बोन में सिर्फ़ हेयर लाइन फ़्रैक्चर था जो ट्रैक्शन से ठीक हो जाता. लेकिन सबसे बुरा हाल मेरा हुआ क्यूँकि मुझे तो कुछ हुआ ही नहीं था. पसलियाँ टूटी नहीं थीं सिर्फ़ चोटिल हो गयीं थीं. डाक्टर, जो मेरे पति के मित्र भी थे, बोले कि अगर पसलियाँ टूट भी गयी होतीं तो भी इनका कोई इलाज न होता. टूटी पसलियों को ऐसे ही छोड़ दिया जाता है जो 21 दिन के अंदर अंदर अपने आप जुड़ जाती हैं. मुझसे ठीक से साँस तक नहीं ली जा रही थी और डाक्टर के हिसाब से मुझे कुछ हुआ ही नहीं था.
अस्पताल में दो कमरे बुक हुए. एक में मेरी पोस्ट आपरेटिव सास, एक में 21 दिन के ट्रैक्शन पर मेरे पति और इन दोनों कमरों के बीच त्रिशंकु मैं. क्यूँकि मुझे तो कुछ हुआ ही नहीं था ना, तो मुझे कभी इधर तो कभी उधर अटेंडेंट का रोल निभाना था. लगभग एक पूरे महीने हम लोगों ने ख़ूब पिकनिक की. अस्पताल के ठीक पीछे स्पेंसर्स था, तो एक तरफ़ डोमिनो’ज पिट्ज़ा. परली तरफ़ शहर की सबसे मशहूर मिठाई की दुकान तो थी ही. हमारा संयुक्त परिवार, सबकी दीपावली की छुट्टियाँ हो चुकी थीं. एक सुबह से अस्पताल में जमावड़ा लग जाता. घर से पकवान बन बन कर आते. जो कमी रहती वो आजू बाजू के बाज़ार से पूरी हो जाती. हालत यह थी कि हमें पूरे महीने फल ख़रीदने नहीं पड़े. जो भी मिलने आता वो सेब, संतरे, अनार, अंगूर लेकर चला आता. पत्तों की फड़ तो दिन भर जमी रहती. कभी कभी तो डाक्टर साहब भी लंच टाइम में आकर दो हाथ की बाज़ी खेलने बैठ जाते थे. नर्स बीपी चेक करने आती तो sorry sorry बोल कर वापस चली जाती.
लगभग एक महीने वहाँ मौज मस्ती से गुज़ारने के बाद जब हमारे डिस्चार्ज की तैयरियाँ होने लगीं तो अजब स्वाँग होने लगा. रूम में आने वाली नर्सें गले मिल मिल कर रोने लगती थीं- “आँटी जी, आपसे बड़ा मोह हो गया था. आप लोग चले जाएँगे तो बड़ा सूना लगेगा.” और मेरी सास कहतीं- “अरे, हम भी जाना कहाँ चाहते हैं. ये तो डाक्टर बड़ा दुष्ट है, ज़बर्दस्ती डिस्चार्ज कर दे रहा है.”
और जब हमारे पास अस्पताल का बिल आया तो हमारी आँखें फटी की फटी रह गयीं. 15000 /- रुपए… मात्र पंद्रह हज़ार रुपए. मैं ने सिन्हा जी से कहा- “लगता है डाक्टर साहब एक ज़ीरो लगाना भूल गए हैं.” थोड़ी देर में डाक्टर साहब खुद रूम में आए. सिन्हा जी ने कहा- “ देखो यार, सरिता क्या कह रही हैं कि डाक्टर साहब एक ज़ीरो लगाना भूल गए हैं. “
डाक्टर साहब हेहेहे करने लगे, बोले- “ हैं, इनका सुनो, डेढ़ लाख देंगी.” कहने लगे “भाभी जी, इन लोगों को जाने दीजिए, अब आप रुकिए, आप की पसली का इलाज कर दें. तब डेढ़ लाख का बिल आपको थमाएँगे.”
डाक्टर साहब ने अपनी दोस्ती का फ़र्ज़ निभाया, सिर्फ़ आपरेशन और दवाओं का बिल लिया. हम लोग ठीक ठाक हो कर घर लौटे. चलो अंत भला तो सब भला. लेकिन अभी भी कभी कभी सोचती हूँ कि अगर गाड़ी पेड़ से ना टकरा कर तालाब में चली जाती तो उस भयंकर बारिश में घंटों किसी को पता ही न चलता कि यहाँ कुछ हुआ भी है. या फिर जब गाड़ी अनियंत्रित होकर सड़क पर भाग रही थी उसी समय सामने से कोई भारी ट्रक वग़ैरह आ रहा होता तो… आज मैं यह कहानी आपको सुना न रही होती.
इसीलिए सोचती हूँ कि ज़िंदगी और मौत के बीच सिर्फ़ दुआओं का फ़ासला होता है.