कभी कभी मैं यह सोचती हूँ कि आज जब महिलाएँ हर क्षेत्र में पुरुषों से बराबरी करना चाहती हैं तो फिर मानवाधिकारों और मूलभूत अधिकारों के होते हुए भी जब उनको अलग से कुछ अधिकार दिए जाते हैं तो वो उनको चुपचाप कैसे रख लेती हैं.
क़ायदे से तो उन्हें कहना चाहिए कि हम समानता के अधिकार की माँग करते हैं, किसी अलग महिला के अधिकार की नहीं. लेकिन मामला काफ़ी पेचीदा है. जब क़ुदरत ने ही महिलाओं को पुरुषों से अलग बनाया है तो कोई भी महिला ख़ुद को पुरुष के बराबर कैसे मान सकती है.
अभी आप क़ानून को भूल जाइए. हम सिर्फ़ क़ुदरत की बात करें तो आँख, नाक, कान, मुँह, हाथ, पैर और मस्तिष्क यानि कि जिन समान लक्षणों के कारण दोनों समान रूप से इंसान हैं, इन्हें पोषित करने के लिए उनके अधिकार भी बराबर हैं. लेकिन जो शारीरिक लक्षण महिला और पुरुष को अलग पहचान देते हैं, खुद क़ुदरत ने ही उस आधार पर दोनों को अलग अलग अधिकार व शक्तियाँ दी हैं.
एक महिला के पास क़ुदरत का दिया हुआ सबसे बड़ा माँ बनने का अधिकार होता है. यह अधिकार महिला की एक विशेष शक्ति है लेकिन विडम्बना यह है कि यही शक्ति उसे शारीरिक रूप से कमज़ोर बना देती है. एक लड़की पैदा ही कमज़ोर अंगों के साथ होती है.
उसके सभी बाह्य व आंतरिक अंग, कैलोरी की खपत, शारीरिक शक्ति, बेसल मेटबॉलिक रेट, बोन डेन्सिटी, हॉर्मोनल रश, इमोशनल लेवेल, सब कुछ उसके हम उम्र लड़के से कम व कमज़ोर होते हैं. यह क़ुदरत की देन है.
इसके लिए किसी भी लेवेल का कोई भी फ़ेमिनिस्ट कहीं जाकर कोई धरना प्रदर्शन और समानता के अधिकार की माँग नहीं कर सकता. क़ुदरत के इस क़ानून के आगे सभी को सर झुकाना ही पड़ता है.
क़ुदरत के इस क़ानून के कारण महिलाओं को उनके जीवन में कमज़ोर न पड़ने देने के लिए ही संविधान द्वारा मानवाधिकार व मूलभूत अधिकारों के होते हुए भी महिलाओं के लिए अलग से विशेष महिला अधिकारों का प्रावधान किया गया है.
हमारे देश के संविधान द्वारा प्रदत्त महिलाओं के अधिकार क्या हैं, इसके बारे में ख़ुद महिलाओं के पास ही अधकचरा ज्ञान है.
हालाँकि इंटरनेट की सर्वत्र उपलब्धता के बाद अब तो किसी भी तरह की जानकारी का स्रोत भी बेहद आसान हो गया है.
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